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शरद पवार ने खेला ‘इमोशनल गेम

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महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव के लिए गरमाते माहौल के बीच शरद पवार ने संसदीय राजनीति त्‍यागने के संकेत दे दिए हैं, लेकिन यह संकेत देते हुए भी वह राजनीति में वंशवाद की बेल को खाद-पानी ही दे गए. संसदीय राजनीति से अपने संन्‍यास की बात करते हुए उन्‍होंने लोगों से पवार खानदान की तीसरी पीढ़ी को बारामती की विरासत सौंपने की अपील की.

बारामती पवार का गढ़ रहा है. शरद पवार ने अपने पोते युगेंद्र पवार को बारामती विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया है. यहां के सुपे गांव में पांच नवंबर को शरद पवार ने भावनात्‍मक अंदाज में लोगों से कहा, ‘मैंने बरामती से 14 चुनाव लड़े हैं. आपने मुझे हमेशा चुना. आपकी वजह से मैं विधायक बना, मंत्री बना, फिर चार बार मुख्यमंत्री बना. फिर आपने मुझे कुछ साल पहले लोकसभा के लिए सांसद चुना. इसके बाद मैंने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया और राज्यसभा सांसद बना. मैं राज्यसभा में सांसद हूं और मेरा कार्यकाल डेढ़ साल में समाप्त हो जाएगा. अब मैं सोच रहा हूं कि दोबारा राज्यसभा सांसद न बनूं.’

एनसीपी (एसपी) प्रमुख ने कहा, ‘मैंने 30 साल तक बारामती के विकास और प्रगति की जिम्मेदारी संभाली और फिर अगले 30 साल के लिए यह जिम्मेदारी अजीत पवार को सौंपी. यह परंपरा आगे भी जारी रहनी चाहिए. इसलिए हमें अगले 30 साल के लिए युवा नेतृत्व को यह जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए ताकि बारामती में जनसेवा की विरासत को आगे बढ़ाया जा सके. इसके लिए विधानसभा चुनाव में युगेंद्र को चुनना जरूरी है.’

बता दें कि बारामती विधानसभा सीट 1962 में बनी और शरद पवार 1967 से 1990 तक लगातार विधायक रहे. उसके बाद से उनके भतीजे अजीत पवार यहां के विधायक रहे हैं और इस बार फिर मैदान में हैं. इस बार की लड़ाई नाक की है. भतीजे पवार ने चचा पवार को जब से गच्‍चा दिया है, उसके बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है. इसलिए दोनों के लिए नाक का सवाल है.

पार्टी में शरद पवार की राजनीतिक हैसियत न के बराबर रह गई है. उनकी उम्र 83 साल हो चुकी है. जब तक उनका राज्‍यसभा सांसद का कार्यकाल खत्‍म होगा, तब तक वह करीब 85 साल के हो जाएंगे. ऐसे में चुनावी राजनीति छोड़ने का संकेत देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात है, बारामती में अपने उम्‍मीदवार को जिताना. इसलिए एक दांव के तौर पर उन्‍होंने ‘इमोशनल गेम’ खेला है. अब राजनीतिक जीवन के अंतिम पड़ाव पर उनके लिए ज्‍यादा जरूरी बची हुई पार्टी की नाक बचा कर रखना है.

बची हुई पार्टी इसलिए कह रहा हूं कि सब जानते हैं पुत्री-मोह के चलते कैसे भतीजे ने ही उनकी राजनीतिक पूंजी पर डाका डाल दिया और वह कुछ नहीं कर सके. इसके बाद भी वह पार्टी में परिवारवाद को ही आगे बढ़ाने में लगे रहे हैं.

राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा के चलते शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) बनाई थी, लेकिन असल में उन्‍होंने इसे परिवारवादी पार्टी बना दिया और अभी तक बनाए रखा है. ताजा कड़ी में बारामती में पोते युगेंद्र पवार को लॉन्‍च कराया जा रहा है, जिसकी तैयारी कई महीने पहले शुरू हो गई थी.

युगेंद्र पवार, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार के भाई श्रीनिवास पवार के बेटे हैं. युगेंद्र ने राजनीति में चाचा अजित की जगह दादा शरद पवार के खेमे में रहने का फैसला किया. वह पहली बार फरवरी में एनसीपी (शरद पवार) के दफ्तर गए थे. तब शरद पवार व उनकी बेटी सुप्रिया सुले ने बात को हल्‍के में उड़ा दिया था. सुप्र‍िया ने तो यहां तक कह दिया था कि पवार परिवार को राजनीति में न घसीटा जाए. लेकिन, विधानसभा चुनाव आते ही पवार परिवार के इस कुमार को शरद पवार ने बारामती से विधायक बनाने के लिए उतार दिया.

युगेंद्र शरद पवार द्वारा स्‍थापित किए गए विद्या प्रतिष्ठान के कोषाध्यक्ष हैं. वह बारामती तालुका कुश्तीगीर परिषद के भी प्रमुख हैं. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा मुंबई और पुणे में पूरी की और इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए थे. उन्होंने बोस्टन के नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी से फाइनेंस और इंश्योरेंस की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने अपने पिता के व्यवसाय से जुड़कर शरयू ग्रुप ऑफ कंपनीज़ में निदेशक का पद संभाला. यह समूह लॉजिस्टिक्स, ऑटोमोबाइल डीलरशिप, कृषि उद्योग, सुरक्षा सेवाओं और रियल एस्टेट के क्षेत्र में सक्रिय है.

युगेंद्र बारामती में शरयू फाउंडेशन के जरिए सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे हैं. शरद पवार के जन्मदिन पर पिछले साल दिसंबर में उन्होंने बारामती में कुश्ती प्रतियोगिता का भी आयोजन करवाया था. यह आयोजन बारामती तालुका कुश्तीगीर परिषद के जरिए कराया गया था. इस तरह बारामती में उनकी राजनीतिक जमीन तैयार होती रही थी.

राजनीति में परिवारवाद का रोग अकेले एनसीपी या शरद पवार तक सीमित नहीं है. सभी पार्टियों का यही हाल है. महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव की ही बात करें तो एमवीए हो या महायुती, कोई अपवाद नहीं है. बता दें कि महा विकास अघाड़ी (एमवीए) में शिवसेना (उद्धव ठाकरे), कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार) शामिल हैं और सत्‍ताधारी गठबंधन महायुती में शिवसेना (शिंदे), भाजपा, एनसीपी (अजीत पवार) साझीदार हैं. इन सब पार्टियों ने किसी न किसी नेता के बेटे, भाई, पत्‍नी, बेटी को इस चुनाव में लॉन्‍च किया है.

भाजपा, कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार) ने कम से कम नौ-नौ ऐसे उम्‍मीदवारों का टिकट दिया है जो किसी न किसी नेता के परिवार से आते हैं और पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं. शिंदे सेना ने आठ, उद्धव सेना ने पांच और एनसीपी (अजीत पवार) ने कम से कम एक ऐसा उम्‍मीदवार उतारा है. ध्‍यान रहे, यह आंकड़ा नेताओं के सिर्फ उन रिश्‍तेदारों का है, जिन्‍हें पहली बार विधानसभा चुनाव का टिकट मिला है.

परिवारवाद का विरोध नेताओं के भाषणों तक ही सीमित रह गया है. चाहे वह विरोध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही क्‍यों न करते हों. उनकी भाजपा ने तो कांग्रेस छोड़ कर आए पूर्व मुख्‍यमंत्री अशोक चह्वान की बेटी श्रीजया चह्वान को नांदेड़ में भोकर विधानसभा क्षेत्र से टिकट देकर लॉन्‍च किया है. अशोक चह्वान अभी राज्‍यसभा सांसद हैं तो उन्‍होंने अपनी पारंपरिक विधानसभा सीट बेटी को सौंपने का इंतजाम करा लिया.

उधर, उद्धव ठाकरे भी अपने भतीजे वरुण सरदेसाई को पहली बार विधायक बनवाने के मकसद से बांद्रा ईस्‍ट से मैदान में उतार चुके हैं. पुत्र-मोह में राजनीति में काफी नुकसान झेलने के बावजूद उद्धव परिवारवाद से पीछे नहीं हट पा रहे हैं.