रिपोर्टर मुन्ना पांडेय,सरगुजा लखनपुर : सरगुजा लोक कला में शैला सुआ करमा देवारी तथा अन्य विधाएं प्राचीन काल से काफी प्रचलित रही है नृत्य करने की रिवायत सदियों से चली आ रही है । इसी प्रथा को क़ायम रखते हुए इन दिनों जिले के बहुतायत ग्रामीणो इलाकों में शैला नर्तक दल गांवों में घर-घर जाकर शैला नृत्य करते हुए आपसी सौहार्द का पैगाम दे रहे हैं। हिंदी पौष माह में सुआ शैला देवारी नृत्य करने की चलन पुराने जमाने से प्रसिद्ध रही है। दरअसल कृषक वर्ग खेत से खलिहान तक अपने धान फसल को लेकर आते मिसाई करने के बाद अच्छी उपज होने से नाच गान करते खुशी मनाते हैं। जहां पुरुष वर्ग एकजुट होकर शैला नृत्य तथा युवतियां सुआ नृत्य करती हैं वहीं गाव में गाय बैल चराने वाले लोग देवारी नाच कर किसानों के घरों से धान चावल पैसा आदि की दान लेते हैं। मनोरंजन के साथ आपसी प्रेम बांटने का यह प्रथा काफी पुरानी रही है।
गांव में कृषक वर्ग के लोग शैला नृत्य करते हुए अपने चार माह में किये कृषि कार्य की कड़ी मेहनत की थकन को इस नाच गान के जरिए से भूल जाना चाहता है। शैला, देवारी, सुआ नृत्य करने का मकसद शायद यही है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी प्रथा बन कर चली आ रही है।
बहरहाल नगर लखनपुर सहित आसपास ग्रामीण इलाकों में शैला सुआ नृत्य करने वाले कलाकार मयूर पंख पांव में घुंघरू,सिर में मयूर पंख की कलगी, कमर में झाल गले में मांदर मृदंग शहनाई टिमकी निशान सहित दूसरे साजबाज से सुसज्जित खूबसूरत शैला नृत्य करते नजर आने लगे हैं। इसी तरह महिला समुह काठ की बनी तोता बांस के टोकरी में लिए घर घर जाकर कतारबद्ध सुआ नृत्य कर रही है। कहीं कहीं गांव में देवारी नृत्य किया जा रहा है। शैला सुआ नृत्य से प्राप्त धान चावल पैसा आदि को नर्तक दल के कलाकार सामुहिक रूप से आपस में मिलजुल कर खर्च करते हैं। खास कर पौष मास के शुक्ल पक्ष पूर्णिमा तिथि को होने वाली छेरछेरा त्योहार में शैला नर्तक दल के लोग बकरा मुर्गा लेकर खाते खिलाते खुशी मनाते हैं। शैला सुआ देवारी नृत्य करने का यही मतलब रहा है।